कविता की रचना लंबा सफर |

दौड़ मत धीरे चल राही,
सफर अभी, लंबा है।।
पग दो है, पथ अनेकों ,
लंबा सफर चलना हैं।
दौड़ मत धीरे चल राही ।

थक जायेंगे ये पग तेरे,
दूर सफर, पथ करते।।
प्रारम्भ हैं ,जीवन का,
दौड़, मत चल धीरे धीरे।

ना लगा दौड़ इन राहों में,
पडेगें छाले पग में तेरे।।
मंजिल दूर,आसान नहीं,
लगेगा पथ में,ठोकर तेरे।

रुक ना जाए,कहीं सांस,
सफर लम्बा पथ करते ।।
कहीं उतार, कहीं चढाई,
झुके ना कमर चलतें ।

जीवन में संघर्ष अनेक है,
कष्टों का भंडार भरा है।।
पहाड़ खड़े बाधा बनकर,
रिश्तों का संगम बड़ा हैं।

नदियों का बहता जल है,
गगन में वायु हैं, जीवन।।
धरती पर माटी की मूर्ति है,
लकड़ी का राख है जीवन।

दौड़ मत धीरे चल राही,
अभी सफर लंबा हैं।।
पग दो हैं, पथ अनेकों ,
लम्बा सफर चलना हैं।

व्याख्या – कविता की रचना लंबा सफर

हे ,मुसाफिर दौड़ मत जीवन मे तुमे बहुत लंबा  सफ़र करना है, अनेकों रास्तों से तुम्हें गुजरना है, रास्ते एक समान नहीं ,कहीं टेढे मेढे रास्ते हैं ,तो कहीं कंटीले ,कहीं पत्थरीले रास्ते हैं, कहीं उतार तो कहीं चढाई तुम्हें इन सब रास्तों से गुजरना है कहीं रास्ते में ठोकर लग सकती है तो कहीं कांटे तुम्हारे पैरों में चुभ सकतें है। और टेढे़ मेढे  रास्तों में कहीं गिर भी सकते हो, कहीं कमर झुकाकर भी जाना पड़ सकता  है। इसलिए,अपनी गति को धीमे करो, नहीं तो  तुम्हारा  ये शरीर थक जाएंगा फिर तुम जीवन का सफ़र कैसा पूरा करोगे अभी तो तुम्हारी जीवन की शुरुआत होने जा रहीं है , अगर तुम्हारे पैर थक गए तो तुम आगे का सफर कैसा करोगे और धरती पर  अनेकों रास्ते हैं जिनसे होकर तुमे गुजरना पडेगा, तुम्हारे ये दो पैर तुमे जादा लंबा सफर नहीं करा पायेंगे।

इसलिए अपनी तेज गति को विराम दो और धीमी गति से प्रस्थान करो तुम तो नदियों के बहते जल की तरह हो, जैसे नदियों का जल अधिक समय तक एक जगह नही रुक सकता बहता जाता है, वैसे ही तुमे भी चलता जाना है और आकाश में हवा की लहरों के समान हो कभी तेज गति से चलने वाली हवायें तो कभी गति धीमी हो जाती है,उन्हीं हवा की लहरों की भांति तुमे चलना हैं। जिस तरह कही नदीयाँ मिलकर एक साथ संगम बनातीं हैं, ऐसा ही अभी रिशतों का संगम बाकी है, इन्हें भी तुमे निभाना है।

जीवन में कितने ही अच्छे बुरे मेले आपको देखने को मिलेगें, जिस तरह कुम्हार द्धारा धरती की माटी से बनाई गई मूर्ति टूट जाती हैं, फिर से उस मिट्टी की मूर्ति को धरती की मिट्टी में मिला देते हैं ठीक वैसे ही इंसान का जीवन है, सारी उम्र इंसान धरती की गोद में भागता
फिरता हैं, अंत समय में धरती माँ इंसान को अग्नि देव की गोद में बैठाकर लकड़ी के साथ साथ जला कर राख बना देती है। और फिर यहां इंसान का आखिरी सफर का समापन हो जाता हैं।

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